न धर्म कोई , न जात कोई,
न मजहब की हैं बात कोई।
मर्म है इंसानियत का एक,
लुप्त होती मनुष्यता का एक उदहारण मात्र हैं।
मतभेद हैं सोच का,
एक मानसिक मोच का,
हाँ वहीं जिसे कहते हैं आतंकवाद सभी।
क्या सोचा नही किसी ने कभी,
क्यो राजनीति अन्त कर नही पाती आतंकवाद का,
असल मायनो मे देखा जाये तो,
यह राजनीति ही जनक हैं आतंकवाद का।
अन्त नही हैं विचारों का यह,
एक अलग सोच का एक घातक परिणाम है।
सोच वही जो साबित करना चाहती हैं,
खुद को दुसरे से बेहतर हर पल हाँ वही जेहादी सोच आतंकवाद हैं।
भविष्य दांव पर लगा कर नौजवानो का,
जो थमा देती उनके हाथ मे हथियार हैं।
जिन्हे ज्ञान ही नही कुछ ग्रंथों का,
जिन्होने बनाया नई पीढ़ी की विद्रोही सोच को अपना घातक अविष्कार हैं।
वो जिनके हाथो मे शोभा देती थी किताबें,
जिनके सपने थे बदलाव लाने के।
उनकी सोच को ही कुछ मौका परस्तो ने अपना गुलाम बना लिया,
छिने सपने उनके, उनके हाथों मे जेहाद का यह घातक पैगाम थमा दिया।
किसी की भावनाओं और विचारो से खेला,
कोई था जो दुखी था राजनीति के गलियारों से,
कोई बेरोजगार जो कोंसता था अपने साथ हुएँ छल को,
कोई जात-पात के रोने रोता था,
बनाकर उनकी विद्रोही सोच को हथियार अपना,
पढ़ाकर पाठ आस्तित्व के खो जाने का,
उनकी सोच को अपना गुलाम बना लिया,
देखो कैसे एक बदलाव की सोच मे आई मोच ने आतंकवाद को अपना सहारा बना लिया।
अपने ही लोगों का बनाकर दुश्मन ,
हाथो उनके मौत का पैगाम थमा दिया।
क्या घाटी, क्या गाजा,
ओढकर चादर ऑक्साइड की,
बनाकर बिस्तर मिसाईल का,
हाथ मे बन्दूक , दिल और दिमाग मे जेहाद का फितूर चढ़ा दिया।
देखो कैसे इन्सान की सोच मे आई मोच ने आतंकवाद को पैदा कर,
इंसान को ही इंसानियत का दुश्मन बना दिया।
आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi
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