एक बहुत बडा सत्य पता हैं क्या हैं,
पुरुष स्त्री से ज्यादा भावुक होता हैं।
बस वह अपना दुख जिम्मेदारियों की,
वजह से कभी जाहिर नही कर पाता।
रोना चाहता हैं, किसी अपने का कांधा देखकर,
मगर, मजबूरी ऐसी हैं, की रो भी नही पाता।
बांटना चाहता हैं, अपना दुख, अपना दर्द किसी से,
मगर वह कोई अपना ऐसा खोज नही पाता।
एक उम्र के बाद ,बेटा जिसे बनना चाहिये,
सहारा पिता का, वो नौकरी और छोकरी ,
की तलाश मे खुद कही खो जाता हैं।
सहारा तो बन नही पाता, दर्द एक और दे जाता हैं।
वो बेटी जो शायद सबसे ज्यादा चाहती हैं,
पिता को अपने।
चाहकर भी समाज के बने नीयमों के आगे ,
बली चढ़ा दी जाती हैं।
बता कर बोझ कांधो पर पिता के,
किसी और कुल की मर्यादा बना दि जाती हैं।
वह पिता पुरुष ही होता हैं।
जो अपने बेटे, बेटियों के लिये सबकुछ सह जाता हैं,
यहां तक की उनकी खुशी के लिए अपनी,
खुशियाँ तक हार जाता है।
पुरुष प्रधान समाज मे,
पुरुष अपना ही दुखडा कहां रो पाता हैं।
गर रो दे कभी गलती से तो कायर कह दिया जाता हैं।
बचपन से लेकर जवानी तक,
जवानी से लेकर बुढापे तक,
सिर्फ और सिर्फ वह देता ही आता हैं।
कही प्यार, कही दोस्ती, कही रिश्ते ,
तो कही अपनो के हाथो खर्च होता ही जाता है।
कहने वाले कह जाते हैं, जिम्मेदारी निभा रहा हैं,
पर कौन जाने वह बेचारा किस तरह परिवार को निभा रहा हैं।
पुरुष की व्यथा को जाना हैं तो एक उम्र के बाद,
एक पुरुष ने, और उस पुरुष की उस स्त्री ने,
जिसने देखा हैं, उसकी तपस्या, उसके समर्पण ,
उसके त्याग को।
बड़ा ही गजब का किरदार बनाया उस खुदा ने पुरुष का,
भावनाओ का अथाह समुद्र दिया , मगर उसकी भावनाओ को उस तक ही रख दिया.......!!!!!!!!!
आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi
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