यूँ तो संसार की प्रथम भाषा हूँ मैं,
पर अपनो के द्वारा ही तिरस्कृत कोई अभिलाषा हूँ मैं।
हूँ भाषा मे ही आर्यो की,
देवो की बोली भी हूँ।
वेदों, पुराणो और ग्रंथों मे लिखित,
वर्ण शैली भी हूँ।
हर भाषा का मुल आधार हूँ मैं,
भाषा किसे उत्पत्ति का एक मात्र सृजन कार हूँ मैं।
मुझे तिरस्कृत कर दिया मेरे ही रचनाकरो के,
पीढी के वंशजो ने।
ज्ञान जो लिखा गया था मेरी वर्णमाला से,
उसे ही खंडित कर दिया कुछ विचित्र से चेलो ने।
मुझसे ही भाषाएँ आई, वर्णमाला मैने ही सिखाई,
हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, की जननी मैं कहलाई।
कुछ और संताने भी हैं मेरी , शब्द हैं मेरे ,वर्ण हैं मेरे, नाम सबके बदल गए हैं
फ़्रांसिसी, जर्मन, पुर्तगाली, स्पैनिश, डच, फ़ारसी, बांग्ला, पंजाबी, और रुसी देखो कितने नामों मे बंट गए हैं।
पर मेरा मान कहाँ हैं,
जो मिलना था मुझे वो सम्मान कहाँ हैं।
पूँजी जा रही हूं मैं भुमि पर गैरो की,
अपनो को मेरी पहचान कहाँ हैं।
मेरी शुद्ध लिपि को पढने और समझने वाला,
नासा, जर्मनी मे सम्मान हैं पाता।
यहां ना जाने क्यूँ उसे तिरस्कृत कर,
घृणा का पात्र बनाया जाता हैं।
भुला दिया मुझको अपनो ने,
गैरो को अपना बनाते-बनाते ।
ना जाने किस सोच मे देखो,
वंशज आर्यो के अपना अस्तित्व मिटाते ।
मुझको अपनाकर तो देखो,
मैं क्या कुछ ना तुमको दे जाऊँ ।
जितना ज्ञान हैं सकल ब्रह्माण्ड का,
मेरी लिपि मे ही लिखा हैं।
जिसने मुझको जान लिया हैं,
उसने राजो को छान लिया।
बस मेरी इतनी हैं आशा,
मुझको भी सम्मान दिला दो।
जो हिन्दी , अंग्रेजी को दिया हैं,
मुझको भी वह स्थान दिला दो........!!!!!!
आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi
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