अमीरी ,गरीबी की सोच से परे यह बचपना हैं मेरा,
जो खेल अधरों पर मुस्कुराहट बिखेर दे वही असल खेल हैं मेरा।
मैं तो अन्जान हूँ ,दुनिया की रस्मो से,
अभी नादान हूँ , उल्टा सीधा मैं एक समान हूँ।
ना कोई बैर मन मे मेरे, ना किसी से कोई शिकवा हैं,
अभी मनुष्य हुआ नही हूँ मैं, अभी मैं इन्सान हूँ।
नही समझना दुनियादारी, नही चाहता कोई समझदारी,
मैं खुश हूँ अपनी मस्तियो मे, हो चाहे वो महलों मे या बस्तियों मे।
ना अमीरों के खेल पता हैं मुझे, ना गरीबों के,
ना मुझे मेरी पहचान का कोई भान हैं।
मैं बचपन जी रहा हूँ मेरा, मेरे अधरों पर छाई जो मुस्कान हैं,
बस यही जिन्दगी जीना चाहता हूँ मैं, जो समाज और दुनिया के बनाये उसुलो से पूरी तरह अन्जान हैं।
आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi
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