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Saturday 1 February 2020

सन्तान के भविष्य निर्माता माता-पिता..!!!!!?????

सन्तान का जीवन पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर करता हैं। उसके जन्म से लेकर उसके द्वारा माता-पिता की उपाधि पाने तक।
जन्म से सन्तान के प्रथम गुरु की भुमिका माता-पिता ही निभाते हैं। वही होते हैं जो उसे लगभग 5 साल की उम्र तक स्वयं सही गलत की व्यवहारिक शिक्षा देते हैं, जो सदा जारी रहती हैं, उम्र के अन्त तक। और साथ मे कुछ परिवार के और भी लोग होते हैं, मगर उस उम्र मे माता-पिता का और उनकी छवी का असर सन्तानो पर ज्यादा होता हैं, क्योकी वह अत्यधिक समय उनके साथ ही बिताते हैं। फिर जब वह सन्तानअध्ययन के लिये विद्यालय मे जाने लगती हैं, तब मिलते हैं उन तीसरे गुरु जो उन्हे किताबी ज्ञान देते हैं, और अगर गुरु वाकई मे गुरु हुएँ अध्यापक नही तो उन्हे सामाजिक और नैतिक ज्ञान भी प्रदान कर देते हैं। पर उस ज्ञान को व्यवहार मे लाना सन्तान सीखती हैं माता-पिता से। क्योकी पढ़ने लिखने से ज्यादा व्यक्ति का दिमाग वह चीजे ज्यादा तेजी से सीखता हैं, जो वह प्रत्यक्ष देखता और अनुभव करता हैं। अब जैसा व्यवहार, जैसा आचरण माता-पिता और घर के बाकी सदस्यो का होता हैं, सन्तान उसी व्यवहार और आचरण के अनुसार अपनी सीखी बातों का आकलन उन्ही के बीच करती हैं। अगर किसी के घर मे रोज छोटी छोटी सी बातों मे नोक झोंक होती रहेगी तो, उसकी सन्तान भी छोटी छोटी बातों मे वही आचरण प्रयोग मे लायेगी जो उसने आजतक देखा हैं। परेशानियों से लड़ना और उन्हे हल करना सन्तान परिवार से ही सीखत हैं। उसका व्यवहार, उसका नजरिया, उसकी सोच परिवार की ही देन होती हैं। और अगर कभी किसी सन्तान की सोच, उसका नजरिया, उसके परिवार के सदस्यो के अनुसार ना हो तो यकीन मानिये सब से पहले उसका परिवार ही उसके खिलाफ हो जाता हैं, चाहे वह सन्तान पुर्ण रूप से सही भी क्यो ना हो। 
समझना किसी को कोई कभी चाहता ही नही हैं। सभी की आदत बस अपनी इच्छायें, अपनी ख्वाईशे दूसरो के ऊपर थोपने की होती हैं। और यही उतपन्न होता हैं, टकराव। जो बनता हैं, परिवार विच्छेद का कारण।
आज के दौर मे कितने ही युवा सन्यास की और अग्रसर हो रहे हैं, और कुछ गलत कृत्यो की और भी अग्रसर हो जाते हैं , जबकी वह पुर्ण रूप से समृद्ध परीवार से होते हैं। पर क्या करे शुरु से घर का वातावरण, घर के सदस्यो का आचरण, और दुनिया के झूठे दिखावे के बीच सामन्जस्य ही नही बैठा पा रहे हैं वो, वो उस दूर हो जाते हैं। मानसिक पृताड्ना और वेदना व्यक्ति को ऐसे कदम मजबूरन उठवा हो देती हैं। 
फिर दोषारोपण होता हैं हर किसी पे। मगर देखा जाये तो परिवार अगर अपनी खोज करे तो उन्हे स्वतः कमी कहाँ रह गई समझ आ ही जायेगा।
अगर आप अपनी सन्तानो को सिर्फ धन, और जीवन यापन की ही शिक्षा देना सबकुछ समझते हैं, तो यकीन मानिये आप माता-पिता कहलानेबके लायक नही हैं। उन्हे संस्कार, संस्क्रति और सदाचार की शिक्षा दिजीये, उन्हे सही गलत ला फर्क बताईये, और जो उन्हे आप  सीखा रहे हओं उसे अपने जीवन मे भी अमल मे लाइये। तब जाकर आप माता-पिता बनेंगे। नाकी सिर्फ सन्तान को जन्म देकर उनकी इच्छायें, उनके शौक पुरे कर और उनपर अपनी अभीलाषायें थोंपकर । 
हर किसी मे कुछ अलग बात होती हैं, सभी एक जैसे कभी ना थे ना ही कभी हो सकते हैं। किसी और की तुलना मे अपनी सन्तानो को तौलना बंद किजीयें। उनके अंदर के हुनर उनकी इच्छाशक्ति को पहचान कर उसे प्रोत्साहित किजीये। अगर समाज और दुनिया के बारे मे ही हमेशा सोचते रहेंगे तो यकीन मानिये आप अपनी सन्तान को खो देंगे किसी ना किसी तरह से। मगर आप इस बात को नही समझने वाले, क्योकी आंखो और विचारो पर जो पर्दा धन और चकाचोंध से भरी इस खोखली सामाजिक बातों और कुरीतियों का डला हैं ना वो, आपको कभी सोचने देगा नही। यह सत्य हैं, और कडवा भी हैं। मगर यही आज के दौर मे टूटते रिश्तों, का और कम उम्र मे हो रहे मानसिक और शारिरीक रोगो का कारण भी हैं। 
जिसको और ज्यादा बड़ावा लगातार प्रसारित होने वाले धारावीक भी देते हैं। जिसे घर के सदस्य उन सन्तानो के बीच बेठ कर देखते हैं, जिन्हे उनकी कोई समझ नही, पर वह उनपर असर करता हैं, जो उन्हे असलियत से रुबरु होने पर ज्ञात होता नही, और वही आगे चलकर उन्हे मानसिक पीड़ा पहुचाता हैं।
माता-पिता की जिम्मेदारी बहुत होती हैं, सन्तान के भविष्य निर्माण मे जिसे उन्हे खुद को बुनयादी साँचे मे डालकर गडना होता हैं अपनी सन्तान की सोच और कल्पना शक्ती को सही आकलन करते हुएँ । जो इसमे सफल हो जाते हैं, वह अपना फ़र्ज सही मायनो मे निभा पाते हैं। वरना तो रिश्ते सिर्फ नाम के थे, हैं और रह जाते हैं।
किसी को बुरा लगा हो तो मांफ करना ।🙏

©आयुष पंचोली 
©ayush_tanharaahi

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